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परछाईयाँ

Tripti Sharma

21st, October, 2020

कहते है एक साये की तरह होती है ये परछाईयाँ,
या यूं कहो कि एक साया ही होती हैं,
जिसके काले स्वरुप में हम वास्तविकता को देख नही पाते,
सही गलत का फ़र्क तक पता न चल पाता है।

आजकल के इस हँसते- खेलते दिखावे जीवन मे लोग,
परछाईं की तरह अपने दर्द को इस कदर छिपाए चल रहे है,
जो न दिखाई दिखती है, न समझाए समझी जाती है,
अंदर ही अंदर घुट- घुट कर जी रहे हैं,
न किसी से कुछ कह पाते है, न किसी को कुछ बता पाते है।

आजकल की हो रहे दरिंदगी किस्से छुपी है,
ख़ैर आजकल छोड़िए,
ये तो सदियो से हो रही घटना है,
जिसपे लोग चुप्पियाँ सादे बैठे है,
अगर कुछ बोलने की हिम्मत भी करते तो उन्हें इस तरह
रफा- दफा किया जाता है, जिसका कुछ कहना नही।

क्या कल के हुए उस घटना के बाद भी लगता है,
हमे शर्मिंदा होना चाहिए?
शर्मिंदगी तो अब शायद बची ही नही है।
जंगलो में रह रहे इन जंगली जानवरों से ज्यादा तो,
इस समाज मे रह रहे जंगली जानवरों से डर लगने लगा है,
जो न जाने कब, किसको, कहा दबोच ले,
इंसान कहने में भी जिसको शर्म आती हो।

पर होना क्या है,
सदियों पहले हो रही सती प्रथा में जिंदा औरतों को
अपने मरे हुए पति के लिए जिंदा जलाया जाता था,
और आज भी दरिंदे उन्हें जिंदा जला रहे है,
अपनी भूख मिटाने के लिए।

और लाखों, करोड़ो की तरह
इसे भी ये समाज चार महीने याद रखेगा,
इसके गम में लाखों मोमबत्तियां जलाएगा,
और अंत मे उस कचरे के डिब्बे में पड़े
उस कूड़े की तरह भूल जाएगा,
जो कभी उसके याद से भी उसके घर, समाज मे था ही नही,
और फिर वो रात के काले साये में कही गुम से हो जाएगा।

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